पिहोवा,
आजकल हरियाणा में प्रदेश के 97 सरकारी सहायता प्राप्त गैर-सरकारी महाविद्यालयों के शैक्षणिक और गैर शैक्षणिक कर्मियों के सरकार द्वारा अधिग्रहण किए जाने का मुद्दा गर्म है।
ये मुद्दा 2014 के भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में था लेकिन, राजनैतिक नफे-नुकसान की गणना में 9 साल बाद भी यह सरकार अपने वायदे को पूरा नही कर पाई है। हालांकि विद्यालय स्तर पर सरकार कर्मचारियों के अधिग्रहण का कार्य सफलता पूर्वक कर चुकी है। लेकिन, एडिड कॉलेजेस के मामले में सरकार की राह इतनी आसान नही है। इस मुद्दे पर जितने भी सम्बंधित वर्ग हैं हर कोई अपने व्यक्तिगत नफे-नुकसान के नजरिए से प्रतिक्रिया दे रहा है।
इन 97 महाविद्यालयों के प्रबंधन में सरकार के निर्णय को लेकर ज़बरदस्त खलबली मची हुई है।
आखिर हो भी क्यों नही?
इनके हाथ से सोने के अंडे देने वाली मुर्गी जो निकलने जा रही है। प्रबंधन समितियों में बैठे प्रधानों की प्रधानी तब तक ही महत्वपूर्ण है जब तक इनके हाथ में एडिड स्टाफ की कमांड है। जिस दिन ये कमांड हाथ से गई उस दिन के बाद इनकी प्रधानी भी कागज़ी रह जाएगी। इसलिए ये लोग अपने राजनैतिक सम्बन्धों के सहारे इस मामले को पुनः ठंडे बस्ते में डलवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं।
सरकारी महाविद्यालयों के स्टाफ को लगता है कि एडिड कॉलेजेस का स्टाफ आने के बाद उनके करियर और प्रोमोशन्स पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । हालांकि उनकी ये आशंका निर्मूल है । सरकारी महाविद्यालयों के स्टाफ की प्रोमोशन्स पर सरकार के इस निर्णय का कोई प्रभाव पड़ने वाला नही है उल्टा एडिड कॉलेजेस के स्टाफ से उनका कॉम्पिटिशन खत्म हो जाएगा।
सरकारी वैकेंसीज के इंतजार में बैठे बेरोजगार युवा साथियों को लगता है कि यदि सरकार ने एडिड कॉलेजेस से स्टाफ का अधिग्रहण किया तो उनकी भर्ती के लिए रिक्तियां नही बचेंगी। लेकिन, ऐसा नही है। सरकार के पर सरकारी महाविद्यालयों में शिक्षकों के 4000 के लगभग पद रिक्त हैं लेकिन, एडिड कॉलेजेस के कुल 1400 के लगभग शिक्षकों में से मुश्किल से 700-800 लोग ही अधिग्रहण के दायरे में आएंगे बाकी लोगों का तो सेवाकाल ही 5 साल से कम बचा है और वो लोग खुद ही सरकार द्वारा अधिग्रहण के पक्ष में नही हैं। इसका अर्थ ये हुआ कि अधिग्रहण के बाद भी सरकार के पास 3000 से ज्यादा रिक्त पद बचेंगे। इसके उलट यदि अधिग्रहण होता है तो अगले सत्र से सरकारी महाविद्यालयों में वर्कलोड एकदम से बढ़ेगा क्योंकि स्टूडेंट्स एडिड कॉलेजेस से प्राइवेट कॉलेजेस में तब्दील हो चुके इन संस्थानों को छोड़कर सरकारी महाविद्यालयों की तरफ रुख करेंगे। गैर-शैक्षणिक कर्मचारियों की संख्या तो और भी कम है जो अधिग्रहण के दायरे में आ पाएंगे।
एडिड स्टाफ के अधिग्रहण के उपरांत यूनिवर्सिटी प्रोफेसर्स की चौधर भी ढीली हो जाएगी। एडिड कॉलेजेस की भर्तियों से लेकर स्टाफ की प्रोमोशन्स तक मे यूनिवर्सिटी प्रोफेसर्स की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। वो व्यवस्था खत्म होकर सीधे निदेशालय के पास चली जाएगी तो इनकी चौधर भी ढीली होगी।
स्टूडेंट्स की समस्या का समाधान सरकार को करना पड़ेगा। एडिड स्टाफ के अधिग्रहण के उपरांत इन महाविद्यालयों में फीस वृद्धि तो तय है इसलिए जितने भी छात्र यहां से सरकारी महाविद्यालयों में आना चाहें अगले सत्र में उनके लिए विकल्प खुले छोड़े जाने चाहिएं ताकि किसी बच्चे का नुकसान ना हो।
इस मुद्दे पर हालांकि गैर-शिक्षण कर्मियों में लगभग आमराय है लेकिन, सरकारी सहायता प्राप्त महाविद्यालयों के शिक्षक खुद इस मुद्दे पर एक राय नहीं रखते। आज के दिन हर एडिड कॉलेज में बड़े स्तर पर पद रिक्त पड़े हैं। कागज़ी तौर पर भर्तियां खुली हैं लेकिन, किसी ना किसी बहाने निदेशालय के द्वारा साक्षात्कार की प्रक्रिया अटकाई जाती रहती है। कुछ महाविद्यालय तो ऐसे हैं जहां 5-7 लोग ही स्थाई नियुक्ति पर बचे हैं बाकी सब अस्थाई शिक्षकों के सहारे चल रहा है।
इन महाविद्यालयों के एडिड स्टाफ में जो लोग 2006 के बाद भर्ती हुए हैं वो लोग अपने भविष्य को असुरक्षित मानकर अधिग्रहण की मांग कर रहे हैं और पुराने लोग अधिग्रहण के विरोध में हैं। दरअसल, एडिड कॉलेजेस के जितने भी पुराने लोग हैं वो यहां चांदी कूट रहे हैं। सीनियरिटी के नाम पर पूरा दिन चौधर की खाते हैं। कॉलेज की हर कमेटी में ये लोग कन्वेनर बनकर अफसरी का आनन्द लेते हैं। महाविद्यालय की कोई भी इवेंट हो उसमें चौधर इन्ही की रहती है और नए लोग इनके हुक्म बजाते हैं। कइयों को तो 20-20 साल हो गए कभी कमरे में जाकर एग्जाम ड्यूटी नही देकर देखी। हर जगह या तो नए टीचर्स काम करते मिलेंगे या फिर सेल्फ फाइनेंस के लोग। ये सभी पुराने शिक्षक एसोशिएट प्रोफेसर हो चुके हैं तथा घर-गाड़ी सब खरीद चुके हैं इसलिए अगर 3-4 महीने में एक बार भी तनख्वाह आ जाए तो इनको दिक्कत नही होती। इसलिए अधिग्रहण की खबर आते ही चौधर जाने के डर से इनकी सांसें फूल जाती हैं और ये लोग अधिग्रहण की प्रक्रिया को रुकवाने के लिए सक्रिय हो जाते हैं। 2018 में हरियाणा कॉलेज टीचर्स एसोसिएशन के लोग तत्कालीन वित्तमंत्री के माध्यम से अधिग्रहण की प्रक्रिया को पलीता लगा चुके हैं।
2006 के बाद भर्ती शिक्षकों को पता है कि उनकी राहें अधिग्रहण के उपरांत और भी मुश्किल होने जा रही हैं क्योंकि जिन महाविद्यालयों को उन्होंने अपने पसीने से सींचा है, जिनको NAAC से A grade दिलवाने के लिए उन्होंने दिन-रात एक किए हैं अब ना सिर्फ वो महाविद्यालय उनके लिए पराए हो जाएंगे बल्कि उनको अपनी सीनियरिटी तथा साख दोनो छोड़कर सरकारी महाविद्यालयों में भर्ती उनके स्टूडेंट्स से भी जूनियर बनना पड़ेगा। इसके बावजूद वो लोग सरकार से अधिग्रहण की गुहार लगा रहे हैं।
कुछ तो कारण रहे होंगे, यूँ ही कोई हाथ छुड़ाकर नही चल देता।
जिस प्रकार पिछले 10-15 वर्षों के दौरान सरकार, अफसरशाही और प्रबंधन समितियों में बैठे लोगों ने मिलकर किसी समय इस प्रदेश की उच्चतर शिक्षा की रीढ़ रहे ‘एडिड सिस्टम’ की रीढ़ ही तोड़कर रख दी। पहले पे कमीशन से लेकर बाकी सर्विस बेनिफिट के लिए सरकारी और एडिड कॉलेजेस के स्टाफ में कोई भेदभाव नही होता था क्योंकि सरकारी कॉलेजेस की संख्या काफी कम थी और प्रदेश में उच्चतर शिक्षा का भार यही संस्थाएं वहन करती थी। अब प्रदेश में 150 से ज्यादा सरकारी महाविद्यालय हो चुके हैं तो अफसरशाही ने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए हैं। चार-चार महीने तक एडिड कॉलेजेस के स्टाफ को वेतन नही मिलता। सातवें वेतन आयोग को जनवरी में 8 साल हो जाएंगे लेकिन, एडिड कॉलेजेस के स्टाफ का HRA आज तक भी रिवाइज नही किया गया इसके कारण हर कर्मचारी को हर महीने 4 हज़ार से लेकर 10000 हज़ार तक का नुकसान हो रहा है। 2006 के बाद नियुक्त कर्मचारियों से ग्रेच्युटी का हक छीन लिया गया जो निजी क्षेत्र के कर्मचारियों तक को भी मिलता है। चिकित्सा भत्ते को सैद्धांतिक स्वीकृति पिछली सरकार ने दे दी थी लेकिन, इस सरकार ने उसे भी नकार दिया। हर मामले में सौतेला व्यवहार इन कर्मचारियों के भविष्य के प्रति असुरक्षा का भाव पैदा कर रहा है जिसके कारण 2006 के बाद नियुक्त कर्मचारी लगातार अधिग्रहण की मांग कर रहे हैं क्योंकि वो लोग जानते हैं कि जिस प्रकार से सरकार और अफसरशाही इस व्यवस्था को चौपट करने में लगी हैं वो दिन दूर नही जब उनको अधर में छोड़ दिया जाएगा। यही कारण है कि जिन लोगों ने कभी सरकारी महाविद्यालयों की भर्ती का फार्म भी नही भरा था आज वो लोग अपना नुकसान सहकर भी टेकओवर की गुहार लगा रहे हैं।
हालांकि ये मुद्दा व्यक्तिगत नफे नुकसान की गणना से बहुत ऊपर का है।
सरकारी सहायता प्राप्त संस्थाओं की भूमिका आज़ादी से पहले के ज़माने से भी पुरानी है। सोनीपत की हिन्दू संस्था 1914 में शुरू हुई थी, रोहतक की जाट संस्था 1912 में शुरू हुई थी, वैश्य संस्था 1916 के आसपास की है, अम्बाला की एसडी संस्था मूलतः लाहौर में 1916 में स्थापित हुई थी। ये संस्थाएं हमारे समाज ने स्वदेशी आंदोलन के रूप में अपना पेट काट-काटकर खड़ी की थी लेकिन, समय के साथ-साथ इन संस्थाओं के प्रबंधन में नेता, व्यापारी, लठैत, हिस्ट्रीशीटर, शराब के ठेकेदार, प्रोपर्टी डीलर टाइप वो लोग घुस बैठे जिनका पढ़ाई-लिखाई से दूर-दूर तक कोई नाता नही है। इन लोगों ने अपने पैसे और मसल पावर के सहारे समाज के सेवाधर्मी लोगों को इन संस्थाओं के प्रबंधन से दूर कर दिया और आज हालात ये हैं कि अधिकतर संस्थाओं के प्रबंध समितियों के विवाद न्यायालयों में चल रहे हैं। इन ठेकेदार, प्रोपर्टी डीलर, हिस्ट्रीशीटर टाइप प्रधानों ने इन संस्थाओं की तबाही में कोई कोर कसर नही छोड़ी हुई लेकिन, सरकार कोई व्यस्थित तरीका इन पर लगाम लगाने का ढूंढना नही चाहती क्योंकि इससे पार्टी का वोटबैंक प्रभावित होता है। यही कारण है कि सरकार एडिड स्टाफ का अधिग्रहण करके इनसे किनारा करना चाहती है।